जलवायु परिवर्तन हिमालयी क्षेत्रों के ग्लेशियरों की सेहत के लिए चिंता का सबब बनता दिख रहा है। उत्तराखंड के ग्लेशियर भी इससे अछूते नहीं हैं। यहां के ग्लेशियर प्रतिवर्ष 10 मीटर की औसत दर से पीछे खिसक रहे हैं।
यह बात वाडिया हिमालय भूविज्ञान संस्थान के विभिन्न अध्ययन में सामने आ चुकी है। संस्थान ने हाल में लद्दाख के तीन ग्लेशियरों (पेंसिलुंगपा, द्रुंग-द्रुंग व प्रकाचिक) पर अध्ययन शुरू किया है। इसकी विस्तृत रिपोर्ट अभी तैयार की जा रही है। हालांकि, प्रारंभिक जानकारी के मुताबिक ये तीनों ग्लेशियर भी तेजी से पिघल रहे हैं।
उत्तराखंड में 968 छोटे-बड़े ग्लेशियर हैं, और सभी में पिघलने की दर तेज होने की बात सामने आ रही है। वाडिया संस्थान के एक अध्य्यन के मुताबिक सर्वाधिक तीव्र गति से गंगोत्री ग्लेशियर पीछे खिसक रहा है। इसके पीछे खिसकने की गति प्रतिवर्ष 20 मीटर से अधिक पाई गई है।
इसके बाद डुकारानी ग्लेशियर सालाना 18 मीटर की गति से खिसक रहा है। वहीं, चौराबाड़ी ग्लेशियर में यह दर 13 मीटर प्रतिवर्ष पाई गई। चिंता की एक बात यह भी है कि ग्लेशियरों के पीछे खिसकने के साथ ही इनकी मोटाई भी निरंतर घट रही है।
खिसकने की रफ्तार जितनी अधिक होगी, मोटाई पर भी इसका सीधा असर पड़ेगा।
वाडिया हिमालय भूविज्ञान संस्थान के एक अन्य अध्ययन के मुताबिक यूनेस्को संरक्षित नंदा देवी बायोस्फियर रिजर्व के तहत आने वाली चोटियों के आठ से अधिक ग्लेशियर करीब 37 साल (वर्ष 1970 से 2017) में 26 वर्ग किलोमीटर पीछे खिसके हैं। इनके पीछे खिसकने की दर पांच से 30 मीटर प्रतिवर्ष पाई गई।
इन ग्लेशियरों का जितना आकर था, उसमें से 10 प्रतिशत भाग पिघल चुका है। वाडिया हिमालय भूविज्ञान संस्थान के विज्ञानी डा. मनीष मेहता का कहना है कि जलवायु परिवर्तन का सीधा असर ग्लेशियरों की सेहत पर देखा जा रहा है। इस स्थिति को देखते हुए ग्लेशियरों की निगरानी बढ़ाने की भी जरूरत है। साथ ही उच्च हिमालयी क्षेत्रों में मानव गतिविधियों को नियंत्रित करना भी जरूरी है।